श्री नृसिंह तात्या महाराज पुण्यतिथि

दुंदुभिनाम संवत्सर – श्रावण कृष्ण चतुर्थी  – बुधवार, १३ ऑगस्ट १८६२

आज श्री नृसिंह तात्या महाराज की पुण्यतिथि है। श्रावण वद्य चतुर्थी का दिन हमें महाराजश्री की महान् प्रभुसेवा का स्मरण कराता है। श्रीप्रभु के अनुज श्री नृसिंह तात्या महाराज ने माणिकनगर की स्थापना तथा संप्रदाय के गठन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। श्रीप्रभु के स्वरूप का वर्णन करनेवाली ‘भक्तकार्यकल्पद्रुम’ ब्रीदावली का स्फुरण श्री तात्या महाराज को ही हुआ था। सातवारों के भजनों के क्रम का संकलन तथा संपादन भी महाराजश्री ने ही किया था, वह परंपरा आज भी श्रीसंस्थान में उसी रीति से चल रही है। महाराजश्री का वेदांत शास्त्र पर असाधारण प्रभुत्व था और फिर उन्हें साक्षात् प्रभु महाराज का सान्निध्य व मार्गदर्शन प्राप्त होने के कारण ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’ इस श्रुति वाक्य के अनुसार श्री तात्या महाराज सदैव ब्रह्मानंद में लीन रहते थे। महाराजश्री के दिव्य व्यक्तित्व की छाप, उनके उभय पुत्र श्री मनोहर माणिकप्रभु व श्री मार्तंड माणिकप्रभु पर बड़ी गहराई से पड़ी थी। श्री नृसिंह तात्या महाराज का वर्णन ‘श्री गुरु संप्रदाय’ में इस प्रकार आया है:

पुढे विधिअंश नृसिंह झाला। जो हठयोग प्रगटविला।
गुरूपदेश क्रमाला। मूल जो॥
गुरुदेवाचें भजन। गुरु संप्रदाय खूण।
ज्ञानशिखादि ग्रंथ पूर्ण। जो निर्माण करी॥

श्री नृसिंह तात्या महाराज ने गुरुगीता पर मराठी में ‘ज्ञान शिखा’ नामक अत्यंत समर्पक और अनुपम ऐसा भाष्य लिखा है। उस भाष्य को महाराजश्री ने प्रभु महाराज को दिखाकर उसपर श्रीप्रभु के आशीर्वाद प्राप्त किए थे इसलिए सांप्रदायिक शिष्यों के लिए ज्ञान शिखा का अनन्यसाधारण महत्व है।

श्री नृसिंह तात्या महाराज ने जीवनभर श्रीप्रभुचरणों की सेवा की एवं अंत में परमपद को प्राप्त हुए।

अपने ज्येष्ठ बंधु श्री हनुमंत दादा महाराज एवं माता बयाम्मा के निर्याण के बाद तात्या महाराज तीव्र वैराग्य की भावना को मन में लिए श्रीप्रभु की शरण में गए। अंतर्यामी श्रीप्रभु तात्या के मन की विडंबना को जानकर बड़ी प्रसन्नता से बोले “तात्या, तुम योगिनी व्यंकम्मा की शरण में जाओ, वहीं तुम्हारे प्रश्नों का समाधान मिलेगा।” श्रीप्रभु की आज्ञानुसार तात्या महाराज व्यंकम्मा देवी की शरण में गए। देवी व्यंकम्मा ने तात्या महाराज की मनोदशा को जानकर उनका योग्य मार्गदर्शन किया।

ऊर्मिरहित निरहंभाव। हा मोक्षाचा खरा उपाव।
यासि सांडूनि अभिप्राव। दुजा निभाव नसेची ॥
संचित क्रियमाण प्रारब्ध। प्रभूसि ओपुनी राही स्तब्ध।
वृत्ती गाळूनि निर्वेध। करी लब्ध निजस्थिती ॥
स्थितप्रज्ञ होऊनि आपण। यथा न्यायें वर्ता जाण।
तेणें स्वरूप अनुसंधान। होऊनि पूर्ण शांती मिळे ॥

देवी के इस उपदेशामृत का पान कर तात्या महाराज का चित्त शांत हुआ और उनके मन को एक अलौकिक समाधान प्राप्त हुआ। सद्गदित होकर कृतज्ञतापूर्वक वे देवी के चरणों में नत मस्तक हुए।

येणें परी उपदेशितां। तोष वाटला नृसिंह-चित्ता।
म्हणे माते मज अनाथा । धन्य आतां केलेस कीं॥
तुझे उपदेशामृत पीतां। अमरत्व पातलें हातां।
तृषार्तासी देवसरिता। आलीं धांवत एकसरा॥

इस दिव्यानुभूति के पश्चात् तात्या महाराज श्रीप्रभु के पास गए। अपने बंधु के मुख पर छाई अद्भुत कांति को देख बड़ी प्रसन्नता से श्रीप्रभु ने तात्या महाराज के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखा। तब से श्री तात्या महाराज अखंड ब्रह्माकारवृत्ति में अवस्थित हो गए।

बंधू मस्तकीं विश्वंभर। ओपी आपण वरदकर।
तत्काल वृत्ती ब्रह्मपर। होवुनी स्थिर राहिला ॥

इसके बाद कुछ दिनों तक निरंतररूप से तात्या महाराज ने श्रीप्रभु की कुटिया में श्रीप्रभु के साथ एकांत में समय व्यतीत किया। इस अखंड एकांत के बाद तात्या महाराज ने श्रीगुरुचरित्र का पारायण सत्र संपन्न किया। बृहत् प्रमाण में दान सत्र का आयोजन कर कुछ विशेष अनुष्ठानों को संपन्न किया। वे भजन पूजनादि विविध धार्मिक कार्यों में व्यस्त हो गए।

समाधि की नियोजित तिथि पर निजधाम की यात्रा पर निकलने से पहले तात्या महाराज ने बड़े आनंद के साथ सभी प्रियजनों को विदा किया और सद्गदित होकर श्रीप्रभु के चरणों में अपना मस्तक रख दिया। ठीक श्रीप्रभु के सम्मुख तात्या महाराज ने आसन लगाया। उपस्थित भक्तजनों ने ‘भक्तकार्यकल्पद्रुम’ का घोष प्रारंभ किया, झांज, मृदंग के नाद से माणिकनगर का आकाश भर गया। श्रीप्रभु ने अपने सेवक लंगोटी रामा को संबोधित करते हुए कहा – “तात्या को मुक्त करने का समय आ गया है।” ऐसा कहकर श्रीप्रभु ने तात्या महाराज के दाहिने पाँव का अंगूठा दबाया और प्राण को नाभिकमल (मणिपूर चक्र) में ले गए। तात्या से श्रीप्रभु बोले “तात्या तुम धीरज रखो, अपनी दृष्टि को नासाग्र पर स्थिर करो और किंचित् भी विचलित न होते हुए प्रणव का जप करो।” क्षणार्ध में तात्या महाराज के प्राणों ने ब्रह्मरंध्र का भेदन किया और वे अपने चित्स्वरूप में लीन हो गए।

बंधूचा होईतों मस्तक भेद। प्रभू उभेचि असती सन्निध।
स्वरूपीं लीन होतां सानंद। नेलें बंधा पलीकडे ॥

भक्तजन तात्या महाराज के पर्थिव देह को भजन और जयघोष के बीच संगम ले गए। निज़ाम राज्य के प्रतिनिधियों ने वहाँ उपस्थित रहकर सरकारी सम्मान एवं गौरव के साथ बंदूकों की सलामी दी। श्रीप्रभु के मार्गदर्शन में श्री तात्या महाराज के ज्येष्ठ पुत्र श्री मनोहर महाराज ने विधिपूर्वक उत्तरक्रिया संपन्न की। कुछ दिनों के बाद स्वयं श्रीप्रभु के मार्गदर्शन में संगम में श्री तात्या महाराज के समाधि मंदिर का कार्य पूर्ण हुआ। महाराजश्री के अनन्य भक्त तथा उनके आप्त सहयोगी हुमनाबाद के प्रभुभक्त काळप्पा वासगी ने मंदिर के निर्माण का संपूर्ण व्यव उठाया और एक सुंदर स्मारक को मूर्तरूप दिया। इस प्रकार तात्या महाराज श्रावण वद्य चतुर्थी के दिन सच्चिदानंदरूपी श्रीप्रभुचरणों में लीन हुए। उनकी १५८वीं पुण्यतिथि के अवसर पर हम समस्त भक्तजनों की ओर से श्री तात्या महाराज के चरणों में कृतज्ञतापूर्वक अपने अनंतकोटि नमन अर्पित करते हैं।

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