(Video by Kiran Nerurkar)

सन्‌ १९७६-७७ के फरवरी महीने की बात है। सुबह के लगभग ६ बज रहे थे। प्रभु मंदिर से किसी के गायन की आवज़ से श्रीज्ञानराज जी नींद से जागे और मंदिर के पहरेदार को बुलवाकर उससे उन्होंने पूछा कि, इतनी सुबह मंदिर में कौन गा रहा है? पहरेदार उस कलाकार को नहीं पहचानता था। ज्ञानराज जी स्वयं मंदिर में गए और वहॉं पर कैलास मंटप में पंडित जसराज जी को गायन में मग्न देखकर आश्चर्यचकित रह गए। ‘‘इतने बड़े कलाकार! बिना किसी पूर्वसूचना के ऐसे कैसे यहॉं अचानक पहुँच गए?’’ ज्ञानराजजी ने बिना किसी विलंब के पंडितजी का यथोचित स्वागत किया और उन्हें आदर पूर्वक श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के पास बैठक में ले आए। महाराजश्री से बात करते समय इस तरह अचानक आने का कारण बताते हुए पंडितजी बोले – ‘‘मैंने अपने बुजुर्गों से माणिकनगर के विषय में बहुत सुन रखा था और इसलिए मुंबई से हैदराबाद प्रवास करते समय मेरे मन में प्रभुदर्शन की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई और मैं सीधे माणिकनगर आ गया।  यहॉं पर मेरा किसी से परिचय न होने के कारण मैं आने से पहले किसी से संपर्क भी न कर सका। जब मैं माणिकनगर में आया तब यहॉं गायन करने का मेरा कोई विचार नहीं था, बस दर्शन लेकर लौटने वाला था परंतु जब मैं मंदिर में आया तब इस परिसर की शांति, यहॉं की दिव्यता और वातावरण की प्रसन्नता ने मुझे इतना प्रभावित किया, कि मैं विवश होकर गाने के लिए बैठ गया।’’ महाराजश्री के बैठक में पंडितजी ने महाराजश्री के समक्ष पुनः संगीत सेवा की और कुछ देर यहॉं बिताकर उन्होंने हैदराबाद के लिए प्रयाण किया।

१७ अगस्त को पंडित जसराज का दुखद निधन हुआ। पंडितजी के पिताश्री पंडित मोतीरामजी के काल से ही उनका परिवार श्रीसंस्थान से जुड़ा हुआ है। पंडितजी के बंधु पंडित मणिराम, तथा पंडित प्रताप नारायण ने भी माणिकनगर के संगीत दरबार में विविध कार्यक्रमों में अनेक बार अपनी हाज़री लगाई है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए पंडित जसराज ने श्रीप्रभु संस्थान से अपने संबंधों को और दृढ़ता प्रदान की। माणिकनगर की महान संगीत परंपरा से तो पंडितजी परिचित थे ही परंतु यहॉं का दिव्य आध्यात्मिक वातावरण उन्हें विशेषरूप से आकृष्ट करता था। मुंबई से हैदराबाद आते-जाते समय पंडितजी अक्सर माणिकनगर पर रुकते और प्रभु दर्शन लेकर ही आगे जाते थे। यहॉं आने के लिए वे किसी विशेष निमंत्रण की राह नहीं देखते थे क्योंकि माणिकनगर पंडितजी के लिए अपने घर से अलग नहीं था। श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज, पंडितजी की गायकी को बहुत पसंद किया करते थे। पंडितजी जब भी माणिकनगर आते, महाराजश्री के सामने बड़ी निष्ठा के साथ अपनी सेवा प्रस्तुत करते थे। वे जब महाराजश्री के सम्मुख हाज़री लगाने के लिए बैठते थे, तो सभी व्यस्तताओं को तथा समय की पाबंदियों को भुलाकर गाने में तल्लीन हो जाया करते थे। महाराजश्री अक्सर पंडितजी से अपने किसी पसंदीदा राग की फरमाइश जब करते थे तब भले ही वह राग उस समय का हो चाहे ना हो, पंडितजी अपनी कला से सभा को मंत्रमुग्ध कर देते थे। जब भी पंडितजी माणिकनगर आते थे तो संगीत सेवा के बाद महाराजश्री के पंगत में प्रसाद लेकर, महाराजश्री की अनुज्ञा पाकर ही माणिकनगर से प्रयाण करते थे।

सन्‌ १९८३ में बीदर में श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज की अध्यक्षता में हैदराबाद कर्नाटक संगीत सभा द्वारा आयोजित समारोह में पंडित जसराज जब महाराजश्री से मिले तब महाराजश्री ने उन्हें ‘‘आइये पंडितजी’’ कहकर संबोधित किया तभी पंडितजी महाराजश्री की बात को बीच में काटते हुए बोले  ‘‘महाराज, मैं भले ही इन सभी लोगों के लिए पंडित हूँ पर आपके लिए मैं सदा जसराज ही रहूँगा। तो कृपा करके इस बंदे को आप जसराज ही बुलाऍं।’’ सत्य ही है कि, व्यक्ति की पहचान उसकी विद्वत्ता से नहीं बल्कि उसकी विनम्रता से होती है। गुणिजनों के समूह में अपने इसी गुण के कारण पंडितजी अपनी अलग पहचान बनाने में सफल हुए यह हम सब जानते हैं।

सन्‌ १९८६ में श्री मार्तंड माणिकप्रभु निर्याण अर्ध शताब्दि महोत्सव के संगीत समारोह में उस्ताद अल्लाहरक्खा, पं. जीतेंद्र अभिषेकी, वि. प्रभा अत्रे तथा वि. मालिनी राजूरकर जैसे भारत के दिग्गज कलाकारों ने प्रभु चरणों में संगीत सेवा प्रस्तुत की थी। इस महोत्सव में पंडितजी को भी आग्रहपूर्वक निमंत्रित किया गया था। विशेष बात यह है, कि कार्यक्रम के दिन सुबह के समय पंडितजी ने इच्छा व्यक्त की, कि उन्हें पहले श्री मार्तंड माणिकप्रभु महाराज के समाधि के सामने बैठकर सेवा करनी है। वहॉं उस समय किसी प्रकार की कोई तयारी नहीं थी। न माइक्रोफोन, न साथी कलाकार, न हार्मोनियम न तबला। पंडितजी ने व्यवस्थापकों को कालीन बिछाने तक का मौका नही दिया। ठंडे संगेमरमरी फर्श पर बैठे और खुद तानपुरा बजाते हुए गाना आरंभ कर दिया। ‘प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो’ यह बंदिश पंडितजी ने श्री मार्तंड माणिकप्रभु महाराज की सेवा में प्रस्तुत की। शाम की सभा में पंडितजी ने राग बिहागडा में ‘ये आली री अलबेली’ मेवाती घराने की यह पारंपरिक बंदिश प्रस्तुत की। इस सभा में पंडितजी ने महाराजश्री से कुछ फरमाइश करने की प्रार्थना की तब महाराजश्री ने उनसे अडाना राग पर आधारित ‘माता कालिका’ गाने को कहा। उस कार्यक्रम में जिन्होंने पंडितजी को सुना वे बताते हैं, कि पंडितजी ने लोगों पर ऐसा ज़बरदस्त जादू कर दिया था,  कि आज भी उस बंदिश के स्वर, वे तानें श्रोताओं के मस्तिष्क में गूंज रही हैं। आज इस प्रांत में कुछ ऐसे भी संगीतकार हैं जिन्हें संगीत सीखने की प्रेरणा ही उस दिन के कार्यक्रम से मिली। स्वयं पंडितजी ने उस दिन कार्यक्रम के बाद महाराजश्री से कहा था, कि ‘‘प्रभु के दरबार में गाने से मुझे जैसी तसल्ली मिलती है, वह और कहीं नहीं मिलती।’’ इतना कहकर पंडितजी ने स्वयं महाराजश्री के दाहिने हाथ को अपनी ओर खींचा और अपने सर पर रख लिया। महाराजश्री ने उस दिन पंडितजी को श्रीप्रभु समाधि के दिव्य महावस्त्र से सन्मानित किया था। पंडितजी के मन में श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज के प्रति असीम आदर और श्रद्धा की भावना थी और प्रभुचरणों में उनकी वही आसक्ति उन्हें बार-बार माणिकगर की ओर आकृष्ट करती रही। संगीत को केवल कला तक सीमित न रखते हुए पंडितजी ने संगीत को आध्यात्मिक साधना के रूप में अपनाया और वही शिक्षा अपने चेलों को भी दी। उसी साधना का प्रभाव पंडितजी की कला में भी स्पष्टरूप से दिखता है। विश्व भर में प्रसिद्धि और ख्याति पाने के बाद भी पंडितजी के अंदर जो सरलता और सहजता थी वह आज संगीत की आराधना करने वाले सभी साधकों के लिए अनुकरणीय है।

आज पंडित जसराज तो नहीं रहे परंतु रसिक श्रोताओं के मन पर उनके आवाज़ की छाप सदा के लिए रहने वाली है। हम श्री माणिकप्रभु संस्थान की ओर से पंडित जसराज को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए श्रीचरणों में प्रार्थना करते हैं, कि प्रभु उन्हें सद्गति प्रदान करें।

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