देनेवाला प्रभु समर्थ है !

श्री मार्तंड माणिकप्रभु महाराज के काल में श्रीसंस्थान की सांगीतिक परंपरा को अत्यंत भव्यता प्राप्त हुई थी। स्वयं महाराजश्री संगीतशास्त्र के मर्मज्ञ थे तथा कलाकारों पर उनकी विशेष कृपादृष्टि रहती थी। प्रभु दरबार की ख्याति को सुनकर अनेक दिग्गज कलाकार श्रीचरणों में हाज़री लगाने के लिए माणिकनगर आकर अतुरता से सेवा की संधि की प्रतीक्षा करते थे। हर दूसरे दिन संगीत की महफिल सजती थी और किसी न किसी कलाकार का श्रीजी के सम्मुख गाना-बजाना होता था। इस अवसर पर निज़ाम राज्य के वरिष्ट अधिकारी, अमीर उमराव और नवाब आदि विशेष अतिथि भी संगीत सभा में शामिल होते थे। ऐसी ही एक सभा चल रही थी। श्रीजी सहित अनेक राजमान्य महानुभाव माणिकबाई नामक कलाकार का गाना सुन रहे थे। उस दिन विशेषरूप से माणिकबाई का गाना सुनने हैदराबाद से आए, पायगा के नवाब भी सभा में उपस्थित थे। नवाब साहब माणिकबाई की कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी लाखों रूपयों की मोतियों की माला को ईनाम के तौर पर एक सेवक के हाथों माणिकबाई के पास भेजा। उसी समय माणिकबाई ने गाना रोका, मंच से उतरकर श्रीजी के आसन के पास आईं और उस हार को श्रीजी के चरणों में रखते हुए नवाब साहब से बोली, “नवाब साहब मैं यहाँ महाराज की सेवा कर रही हूँ किसी का मनोरंजन नहीं और मुझे मेरे महाराज ने पहले से ही इतना दिया है, कि मेरे लिए ऐसे इनाम मिट्टी के समान हैं। मुझे देने वाला मेरा प्रभु समर्थ है मुझे आपके इस ईनाम की कोई ज़रूरत नहीं है। और हाँ जिस महफिल में बड़े मौजूद हों वहाँ छोटे लोगों को ईनाम देनी की बेअदबी नहीं करनी चाहिए।” इतना कहकर माणिकबाई ने फिरसे मंच पर जाकर गाना प्रारंभ कर दिया। माणिकबाई के इस जवाब को सुनकर नवाब साहब सहित सभा में सब ठंडे पड़ गए थे पर महाराजश्री मुस्करा रहे थे।

 

सारे जहां के बंदर, माणिकनगर के अंदर!

मंगलवार ६ अक्तूबर २००९ की रात्रि को श्रीमत्सद्गुरु सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज प्रभुस्वरूप में लीन हो गए। गुरुवार ८ अक्तूबर २००९ की दोपहर समाधि की विधि संपन्न हुई। अब प्रश्न था श्रीजी की समाधि पर एक तात्कालिक देवालय का। ९ अक्तूबर की रात्रि को खुले आसमान के नीचे श्रीजी की समाधि के सामने माणिकनगर के ग्रामवासी भजन कर रहे थे। तभी उन में से कुछ लोगों ने यह निर्णय किया कि माणिकनगर के सभी ग्रामवासी मिलकर यदि देवालय के कार्य में पूरी लगन से जुट जाएंगे तो देवालय का निर्माणकार्य १८ अक्तूबर को होनेवाली श्रीजी की आराधना से पूर्व पूर्ण हो सकता है।

केवल ८ दिन का ही समय था तथापि सभी ग्रामवासियों ने निर्णय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, देवालय का निर्माण ८ दिन में अवश्य पूर्ण करेंगे। सभी ग्रामवासियों ने श्री ज्ञानराज माणिकप्रभु महाराज को अपना निर्णय सुनाया‌ किंतु वे स्वयं कोई भी निर्णय लेने की अवस्था में नहीं थे। ‘मौनं स्वीकृति लक्षणं’ इस न्याय से माणिकनगर के पुरुषों ने, स्त्रियों ने, बालकों ने और युवकों ने १० अक्तूबर के दिन श्रमदान प्रारंभ किया।देवालय के लिए लगनेवाली संपूर्ण सामग्री का प्रबंध भी ग्रामवासियों ने ही किया। ‘कहीं की ईंट कहीं का रोडा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ इस कहावत के अनुसार सारी सामग्री अपने आप जुट गई। माणिकनगर के हजारों हाथों ने दिन-रात.परिश्रम करके १७ अक्तूबर की रात समाधि सहित श्रीजी के देवालय के निर्माणकार्य को पूरा कर दिया।१८ अक्तूबर के दिन इस नवनिर्मित देवालय में श्रीजी की आराधना अत्यंत वैभव के साथ संपन्न हुई। रामायण में जिस प्रकार वानरों ने सेतु का निर्माण किया था उसी प्रकार माणिकनगर वासियों ने श्रीजी के देवालय का निर्माण किया। इसीलिए श्रीजी मज़ाक में कहा करते थे “सारे जहां के बंदर, माणिकनगर के अंदर!”

 

 

बेसन के लड्डू

श्री सिद्धराज माणिकप्रभु महाराज की मातोश्री श्रीमती लक्ष्मीबाई साहेब को हम सब ‘मामीसाहेब’ के नाम से जानते हैं। सन् १९२८ में श्री शंकर माणिकप्रभु महाराज के साथ उनका विवाह हुआ और श्री मार्तण्ड माणिकप्रभु की पुत्रवधु के रूप में वे श्रीप्रभु परिवार में दाखिल हुईं। मामीसाहेब को ९ वर्षों तक श्रीमन्मार्तंड माणिकप्रभु महाराज की सेवा का लाभ प्राप्त हुआ। उन दिनों की एक घटना वे बार बार याद करके सुनाया करती थीं।

प्रतिवर्ष दत्त जयंती के दरबार के उपरांत श्री मार्तण्ड माणिकप्रभु महाराज कुलस्वामी श्री खंडेराय के दर्शन के लिए बाड़े में जाया करते थे। वहां घर की सौभाग्यवती स्त्रियां उन्हें आरती करतीं और शगुन के रूप में बेसन के लड्डू चांदी की कटोरी में श्रीजी के समक्ष रखती थीं। यह प्रथा कईं वर्षों से बाडे में चली आ रही थी। मामीसाहेब के विवाह के बाद सौभाग्यवती पुत्रवधु के रूप में यह उत्तरदायित्व उन पर आन पडा। १-२ वर्ष उन्होंने इस परंपरा को भली-भांति निभाया परंतु उन्होंने जब देखा कि बेसन के लड्डू को महाराज हाथ तक नहीं लगाते, और यह रिवाज केवल औपचारिकता मात्र बनकर रह गई है, तो उन्होंने एक वर्ष दरबार के उपरांत महाराजश्री जब बाडे में पधारे, तब केवल आरती की। मामीसाहेब ने उस वर्ष बेसन के लड्डू नहीं बनाए थे।

आरती के उपरांत महाराजश्री को उठना चाहिए था किंतु वे बैठे रहे। महाराजश्री ने आश्चर्यपूर्वक पूछा ‘‘क्यों? इस बार बेसन के लड्डू नहीं हैं क्या?’’ इस पर मामीसाहेब ने सकुचाते हुए तथा घबराते हुए उत्तर दिया ‘‘आप लड्डू तो खाते ही नहीं हैं, इसलिए मैंने सोचा, बनाकर क्या लाभ, अस्तु मैंने इस वर्ष लड्डू नहीं बनाए।’’ महाराजश्री ने मुस्कुराते हुए कहा ‘‘बेटी, प्रत्येक को अपना कर्तव्य सदा-सर्वदा निभाना चाहिए। मैं खाऊं या ना खाऊं यह मेरी मर्ज़ी है। तुम्हारा काम लड्डू बनाना है। जाओ, लड्डू बनाकर लाओ। तब तक मैं यहीं बैठूंगा।’’ करीब १ घंटे तक महाराजश्री वहीं बैठे रहे। शर्म एवं हड़बड़ाहट में मामीसाहेब ने किसी तरह बेसन भूनकर लड्डू बनाए और महाराजश्री के सामने लाकर रख दिए। उसमें से एक छोटा सा टुकड़ा महाराजश्री ने खाया और कहा ‘‘वाह, लड्डू बहुत अच्छे बने हैं।’’ फिर महाराजश्री बोले ‘‘अपने कर्तव्यों का सदा स्मरण रखा करो और उनके पालन में कभी भी कहीं भी कोई भी त्रुटि न हो इसके प्रति दक्ष रहो।’’

कर्तव्य के प्रति दक्ष रहने की महाराजश्री की आज्ञा का पालन मामीसाहेब ने आजीवन किया और जिस कुशलता से उन्होंने अपना उत्तरदायित्त्व निभाया, इतिहास इसका साक्षी है। महाराजश्री के ये वचन भले ही ८०-९० वर्ष पुराने हो, किंतु हमारे लिए वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

दरस दे प्रभु दरस दे ।

गेल्या वर्षभरात करोनाच्या वाढत्या प्रादुर्भावामुळे अथवा स्वतः किंवा जवळचे कोणी संक्रमित झाल्यामुळे माणिकनगरला येण्याच्या अनेक संधी हुकल्या. ठरवलेले बेत रद्द करावे लागले, काढलेली तिकिटे रद्द करावी लागली. प्रभु नगरी येऊन प्रभु सेवा करण्याच्या संधी हातातून अचानक निसटून गेल्या. आता तिथे वेदांत उत्सव चालू असताना ह्याची सल अधिकच जाणवते आहे. ही परिस्थिती लवकरात लवकर सुधारून माणिकनगरला येण्याचा लवकरच योग यावा अशी विनम्र प्रार्थना करीत ही कविता प्रभु चरणी अर्पण करते.

विरह-वेला में व्यथित मन

तव स्मरण में है मगन ।

दरस दे प्रभु दरस दे ।।

 

चरण सेवा का सुअवसर

मुझे शीघ्र प्रदान कर ।

दरस दे प्रभु दरस दे।।

 

आ सकूं मैं तेरे द्वारे

नष्ट हों अब विघ्न सारे ।

दरस दे प्रभु दरस दे।।

 

कान मेंरे नित तरसते

भजन की धुन सुरस दे।

दरस दे प्रभु दरस दे।।

 

तव चरण में शीश मेरा

हो सदा आशीष तेरा ।

दरस दे प्रभु दरस दे।।