गुरुमंत्र

एक राजा था। उसके राज्य में एक साधु रहा करता था। राज्य के अनेक लोग उस साधु के शिष्य बन गए थे। साधु की कीर्ति राजा तक पहुँची। राजा के मन में उस साधु से मिलने की इच्छा जागृत हुई और एक दिन राजा उस साधु के आश्रम में जा पहुँचा। राजा ने साधु को नमस्कार किया और कहा – ‘‘महाराज, मेरे राज्य के अनेक लोग आपके शिष्य हो गए हैं, आपने अनेक लोगों का उद्धार किया है, आपके उपदेश के फलस्वरूप अनेकों की आध्यात्मिक उन्नति हुई है, कृपाकर आप मुझे भी उपदेश दें और मेंरी आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करें।’’ राजा की अपेक्षा थी कि साधु कोई चमत्कार करेगा, सिर पर हाथ धरकर शक्तिपात दीक्षा देगा अथवा पीठ में धूंसा मारकर कुंडलिनी जागृत कर देगा। साधु ने ऐसा कुछ नहीं किया; उसने राजा से कहा – ‘‘राजन्, तुम नित्य एक सहस्र बार ‘राम राम’ इस मंत्र का जप करो।’’ साधु के इस उपदेश को सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने कहा – ‘‘महाराज, मैं तो बड़ी अपेक्षा लेकर आपके पास आया था, आपने मुझे ‘राम राम’ का सीधा सादा उपदेश दे डाला। यह तो कोई भी बता सकता है, पुस्तकों में भी लिखा हुआ है, इतनी दूर आकर मुझे क्या मिला?’’ साधु मुस्कुराया और उसने कहा “राजन्, मैं तो बस इतना ही जानता हूँ, लेकिन समय आने पर तुम्हारे प्रश्न का उत्तर तुम्हें अवश्य दूंगा।’’  राजा निराश होकर अपने महल में लौट आया।

कुछ दिनों बाद एक दिन राजा अपने दरबार में सिंहासन पर बैठा हुआ था। उसके आसपास उसके मंत्री, सेनापति, सिपाही आदि खड़े थे। तभी अचानक वह साधु दरबार में आया और आते ही उसने ऊँची आवाज़ में कहा-‘‘सिपाहियों, इस राजा को गिरफ्तार कर लो, इसे बंदी बना लो, यह मेंरी आज्ञा है।’’ सिपाही साधु के इस विचित्र आचरण को देखकर विस्मित हो गए, किंतु कोई भी अपनी जगह से नहीं हिला। इस पर और अधिक क्रोधित होते हुए साधु ने सेनापति से कहा – ‘‘सेनापति, तुमने मेंरी आज्ञा नहीं सुनी? मैं कहता हूँ, इस राजा को हथकड़ी पहनाकर तुरंत कैदखाने में डाल दो।’’ राजा अब तक साधु के इस विचित्र व्यवहार को खामोश रहकर देख रहा था किंतु अब उसकी सहनशीलता समाप्त हो गई, उसने चिल्लाकर कहा – ‘‘सिपाहियों, इस उदंड साधु को तुरंत बंदी बना लो।’’ राजा की आज्ञा सुनते ही सिपाहियों ने साधु को गिरफ्तार कर लिया। साधु हँसने लगा, उसने कहा – ‘‘राजन्, तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया? जब मैंने सिपाहियों को तुम्हें बंदी बनाने की आज्ञा दी तब एक भी सिपाही अपनी जगह से नहीं हिला किंतु जैसे ही तुमने मुझे बंदी बनाने की आज्ञा दी, सारे सिपाही मुझ पर टूट पड़े। शब्दों में स्वयं की अपनी कोई शक्ति नहीं होती बोलनेवाले की शक्ति ही शब्दों को सामर्थ्य प्रदान करती है। उस दिन जब मैंने तुम्हें ‘राम राम’ का उपदेश दिया था, तब तुमने कहा था कि यह तो साधारण सा नाम है, कोई भी बता सकता है, पुस्तकों में हैं, किंतु तुम भूल गए कि कोरे शब्दों के पीछे शक्ति नहीं होती। राम का नाम जब गुरुमुख से प्राप्त होता है, तब उन शब्दों के पीछे उस गुरु की समस्त साधना का उसकी अपनी गुरुपरंपरा का बल होता है, जो उन साधारण लगनेवाले शब्दों में असाधारण ऊर्जा का संचार कर देता है। इसीलिए नामजप के लिए गुरुमुख से नाम प्राप्त करने की हमारी प्राचीन परंपरा रही है। साधु की वाणी को सुन राजा हतप्रभ हो गया एवं उसी दिन विधिवत् गुरु उपदेश प्राप्त कर उसने अपनी साधना का श्रीगणेश किया।

श्रीप्रभु महाराज द्वारा स्थापित संप्रदाय में भी गुरु-उपदेश का अनन्य साधारण महत्व है। प्रभु महाराज स्वयं कहते हैं – ‘‘जब मुरशद ने कान फूंका। खुल गई आँखां मुझे मैं देखा॥’’ महाराजश्री ने इसीलिए गुरुमंत्र की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है – ‘‘असा गुरुमंत्र असा गुरुमंत्र। तुटे समूळ संसृति सूत्र॥’’ गुरुमंत्र की महिमा से संसार के सारे दु:ख समूल नष्ट हो जाते हैं। अस्तु गुरु-उपदेश के वास्तविक अर्थ एवं माहात्म्य को जानकर आप सभी संसार के दुःखों से मुक्त होने की दिशा में प्रयत्न करें और उस प्रयत्न में प्रभुकृपा से आप सफल हों ऐसा मंगल आशीर्वाद प्रेषित करता हूँ।

गुरुवाणी

एक बार नारदजी की हनुमानजी से भेंट हुई। दोनों परम भक्त, दोनों ज्ञानी और दोनों अतीव बुद्धिमान्। कुशल-क्षेम के पश्चात् नारदजी ने अपने स्वभाव के अनुसार हनुमानजी को छेड़ना प्रारंभ कर दिया। नारदजी ने कहा – “हनुमान्! तुम निस्संदेह सर्वश्रेष्ठ भक्त हो, तुम्हारी भक्ति अनुपम है, प्रभु के प्रति तुम्हारी निष्ठा अडिग है। तुम्हारा सेवा-भाव अनूठा है, तथापि इन सभी सद्गुणों के होते हुए भी तुम्हारी भक्ति को परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता!” भक्तिशास्त्र के आचार्य नारदजी के ऐसे वचन सुनकर हनुमानजी आश्चर्यचकित हो गए। उन्होंने कहा – “क्यों मुझ में क्या कमी है, जो आप ऐसा कह रहे हैं?” नारदजी ने कहा कि तुम्हारे एक पाप के कारण तुम्हारी भक्ति को परिपूर्ण भक्ति नहीं कहा जा सकता। इस पर हनुमानजी तुनक कर बोले – “कौनसा पाप?” नारदजी ने कहा – “लंका में रावण ने जब तुम्हारी पूँछ में आग लगाई तब तुमने लंका को ही जला डाला, लंका में लगी उस भीषण आग में अनेक निरपराध राक्षस मारे गए। अनेक गर्भवती राक्षसियों का गर्भपात हुआ। तुम्हरी शत्रुता रावण से थी, उसका तो तुम कुछ नहीं बिगाड़ पाए, उलटे तुमने निरपराध राक्षसों को आग में जलाकर मार डाला। यही पाप तुम्हारी भक्ति पर लगा कलंक है।” नारद के इन आरोपों को सुनकर हनुमान् मुस्कुराए। हनुमानजी ने अपने बुद्धिमतां वरिष्ठम् इस ब्रीद को सार्थ करते हुए नारद को समर्पक उत्तर देते हुए कहा – “जब मैंने लंकानगरी पर उड़ान भरी तब यह देखा कि उस नगरी में किसी के भी मुख में राम का नाम नहीं था। जिसके मुख में राम का नाम नहीं होता, वह मुर्दा होता है। मुर्दो को जलाकर सद्गति देना पुण्य का काम है और मैंने वही पुण्य का काम किया है, मैंने कोई पाप नहीं किया।” हनुमानजी के इस चातुर्य पर नारदजी प्रसन्न हुए और उन्होंने दृढ़ आलिंगन से हनुमानजी का अभिनंदन किया।

हनुमानजी ने जो कहा वह शत प्रतिशत सत्य है। हम देखते हैं कि जब शवयात्रा चलती है तब अर्थी पर लेटे मुर्दे के अतिरिक्त शेष सभी लोग राम का नाम लेते हुए चलते हैं; केवल मुर्दा ही राम का नाम नहीं लेता। श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है – यस्याखिलामीवहभिः सुमंगलै: वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभिः। प्राणंति शुंभन्ति पुनंति वै जगत् यास्तद्विरक्ता: शवशोभना मता:॥ अर्थात् उसके गुण, चरित्र, अवतार मंगलमय हैं, उसके श्रवण चिंतन से सकल पापों का नाश होता है, उसका वर्णन करनेवाली वाणी जगत् को चैतन्य व शोभा देती है, जो वाणी उसका वर्णन नहीं करती वह कितनी भी मधुर क्यों न हो, सज्जन उसे प्रेत का अलंकार ही मानते हैं।

प्रभु महाराज भी कहते हैं – भजन बिना तू सुन नर मूरख। मुर्दा काहे को सिंगारा रे। जो मुख भजन नहीं करता, प्रभु का नाम नहीं लेता, वह मुर्दे के समान है। क्योंकि एक अकेला परमात्मा ही चेतन है, उसके अतिरिक्त बाकी सब जड है। चैतन्यरूप परमात्मा की विस्मृति जडता नहीं तो और क्या है? परमात्मा के स्मरण का एकमेव साधन उसका नाम है। अत: मन से प्रभु का स्मरण और वाणी से प्रभुनाम का उच्चारण निरंतर होना चाहिए। और यह भी स्मरण रहे कि प्रभु का नाम लेने की बुद्धि भी चंद भाग्यवानों में ही उदित होती है। अत: मन-बुद्धि-वाणी में प्रभुनाम को धारण करने की बुद्धि आप में जाग्रत हो, ऐसा शुभाशीर्वाद प्रेषित करता हूँ।

वो दिखा रहे हैं जल्वा …

वो दिखा रहे हैं जल्वा चेहरा बदल बदल के।
मरकज़ हैं वो अकेले सारी चहल-पहल के।।

देखी जो शक्ल उनकी लगते हैं अपने जैसे।
मिलने उन्हें चला है ये दिल उछल उछल के।।

उनको गले लगाकर पहलू में बैठने को।
बेताब हो रहा है दिल ये मचल मचल के।।

शीशे में अक़्स अपना देखा वो दिख रहे हैं।
धुंधला रही हैं आँखें आंसू निकल निकल के।।

जो पास आ गए हैं वो दूर जा न पाऍं।
ऐ ‘ज्ञान’ अब उन्हें है रखना सँभल सँभल के।।

आरती श्रीमनोहरप्रभूंची

श्री मनोहर माणिकप्रभु महाराजांच्या १५८व्या जयंती निमित्त

श्री ज्ञानराज माणिकप्रभूंची नूतन रचना

आरती श्रीमनोहरप्रभूंची

(चाल: आरती सगुण माणिकाची…)

आरती सद्गुरुरायाची।
मनोहरप्रभुच्या पायाची।।ध्रु.।।

श्रोत्रियब्रह्मनिष्ठ त्यागी।
स्वयं परिपूर्ण वीतरागी।
ज्ञानविज्ञानतृप्त योगी।
चिरन्तन आत्मसौख्य भोगी।।

घेई विषयापासुनि मोड।
लागे नामामृत बहु गोड।
कर निज प्रभुचरणाप्रति जोड।
ठेवी अंतरि अविरत ओढ।।

असा सद्गुरू।
परात्परतरू।
कल्पतरुवरू।
आरती करू चला त्याची।
मनोहरप्रभुच्या पायाची।।१।।

प्रभाते दीप्त जशी प्राची।
समुज्ज्वल दिव्य तनू ज्याची।
जशी श्रुति शास्त्र पुराणाची।
सुसंस्कृत गिरा तशी त्याची।।

मूर्ति जरि असे वयाने सान।
ठेवुनि परंपरेचे मान।
राखुनि संप्रदाय अभिमान।
रचिले अनुपम नित्य विधान।।

जयाची कृती।
आत्मसुख रती।
स्वरूपस्थिती।
सकलमत मती असे ज्याची।
मनोहरप्रभुच्या पायाची।।२।।

बालरूपांत दत्तमूर्ती।
अमित आलोक यशोकीर्ती।
सच्चिदानंदकंद स्फूर्ती।
मूर्तिमत्‌ ज्ञानकर्मभक्ती।।

सुंदर प्रभुमंदिर निर्माण।
अविरत प्रभुमहिमा गुणगान।
माणिकनामामृत रसपान।
करवुनि देई आत्मज्ञान।।

शरण जा त्वरा।
चरण ते धरा।
स्मरण नित करा।
मरणभयहराकृपा ज्याची।
मनोहरप्रभुच्या पायाची।।३।।

श्री ज्ञानराज माणिकप्रभु महाराज

देह यह मिट्टी का है दिया ….

देह यह मिट्टी का है दिया॥ध्रु.॥

आत्मज्योति से इस जड तन को
चेतन किसने किया?

प्राणों के अविरत स्पंदन को
इंधन किसने दिया?

किसकी आभा से ज्योतित हैं
पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ?

शब्द स्पर्श रस रूप गंध को
किसने अनुभव किया?

किसकी सत्ता से प्रेरित है
कर्मेंद्रिय की क्रिया?

मिट्टी का यह दीप जलाकर
प्रभु ने तम हर लिया।

जीवन की इस दीपावलि में
ज्ञान ज्योति बन जिया।